मेरे शहर की गलियाँ
चलने निकलने में तो कभी
तंग नज़र आती थी
मगर ख्यालों में
बड़ी खुली प्यारी
नज़र आती
मेरे शहर की गलियाँ
उनके तो नाम भी इतने प्यारे थे
झंकार बस नाम से ही बता देती
वहां क्या बिकता था
पतली के तो नाम से ही
बच निकल लेते थे
लाला रिछपाल
हाँ मंदिर, गुरुद्वारे, मंडी, हस्पताल
तालाब और नहर पार
शमशान की ओर
इशारा दे ही देती थी
ये गलियाँ
शहर भी छोटा था
कई बेनामी गलियां
बस जाती मोहल्लों तक
कुम्हार, धोबी, तेली,
अहीर, ठाकुर, बाढ़ की गलियां
पता देती कौन कहाँ रहता है
गाँधी नेहरू बापू के लिए
तो बहुत छोटा था यह शहर
बड़े लोग भी अपने ही थे
उनके नाम भी लगते तो
प्याऊ, धर्मशाला, अखाड़ों
और गऊशाला पर
देखते देखते सब बदल ही गया
और बड़े बड़े अनजान नेताओं
के नाम पड़ गए
गलियों और सड़कों पर
और कितनी अनजान सी बन गयी हैं
यह मेरी अपनी
जानी पहचानी गलियाँ
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